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मधु॑मती॒रोष॑धी॒र्द्याव॒ आपो॒ मधु॑मन्नो भवत्व॒न्तरि॑क्षम्। क्षेत्र॑स्य॒ पति॒र्मधु॑मान्नो अ॒स्त्वरि॑ष्यन्तो॒ अन्वे॑नं चरेम ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

madhumatīr oṣadhīr dyāva āpo madhuman no bhavatv antarikṣam | kṣetrasya patir madhumān no astv ariṣyanto anv enaṁ carema ||

पद पाठ

मधु॑ऽमतीः। ओष॑धीः। द्यावः॑। आपः॑। मधु॑ऽमत्। नः॒। भ॒व॒तु॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। क्षेत्र॑स्य। पतिः॑। मधु॑ऽमान्। नः॒। अ॒स्तु॒। अरि॑ष्यन्तः। अनु॑। ए॒न॒म्। च॒रे॒म॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:57» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:9» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (नः) हम लोगों के लिये (ओषधीः) यव आदि ओषधियाँ (द्यावः) सूर्य्य आदि प्रकाश और (आपः) जल (मधुमतीः) मधुर आदि गुणों से युक्त हों (अन्तरिक्षम्) आकाश (मधुमत्) मधुर आदि गुणों से युक्त (भवतु) हो (क्षेत्रस्य) अन्न के उत्पन्न होने की भूमि का (पतिः) स्वामी (नः) हम लोगों के लिये (मधुमान्) मधुर गुणवाला (अस्तु) हो और (अरिष्यन्तः) अन्यों के साथ नहीं हिंसा करनेवाले हम लोग (एनम्) इसको (अनु, चरेम) अनुकूल वर्त्तें ॥३॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को चाहिये कि वे जैसे अपने लिये उत्तम पदार्थ चाहते हैं, वैसे ही अन्य जनों के लिये भी इच्छा करें ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! न ओषधीर्द्याव आपश्च मधुमतीः सन्तु अन्तरिक्षं मधुमद्भवतु क्षेत्रस्य पतिर्नो मधुमानस्त्वरिष्यन्तो वयमेनमनु चरेम ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मधुमतीः) मधुरादिगुणयुक्ताः (ओषधीः) यवाद्या ओषधयः (द्यावः) सूर्य्यादिप्रकाशाः (आपः) जलानि (मधुमत्) मधुरादिगुणयुक्तम् (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (क्षेत्रस्य) (पतिः) स्वामी (मधुमान्) (नः) अस्मभ्यम् (अस्तु) (अरिष्यन्तः) अन्यैरहिंसिष्यन्तः (अनु) (एनम्) (चरेम) ॥३॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैर्यथा स्वार्थमुत्तमाः पदार्था इष्यन्ते तथैवाऽन्यार्थमप्येष्टव्याः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जशी स्वतःसाठी उत्तम पदार्थाची इच्छा केली जाते, तशी इतरांबाबतही करावी. ॥ ३ ॥